नई दिल्ली ।। सम्पूर्ण हृदय से दूसरे के अनुकूल होने की साधना करते-करते हमारा व्यक्तित्व बनता है, और सर्वगुणों का विकास भी सिद्ध होता है।
प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तित्व अनोखा, स्वतंत्र और अनन्य होता है। किन्हीं भी दो मनुष्यों का चेहरा अलग, माप-वजन अलग, हाव-भाव अलग और विशेषकर विचार अलग, भावना अलग एवं आत्मा की अभिलाषा भी अलग होती है।
प्रकृति के नमूने में पुनरावर्तन नहीं होता। ऐसे दो नमूनों के बीच मेल बिठाना हो और इस प्रयोग को बिल्कुल असाध्य-सा बनाने के लिए एक व्यक्ति स्त्री हो और दूसरा पुरुष हो और जीवन-र्पयत सम्बंध में बंधे रहें, ऐसी गांठ दोनों के बीच बांधनी हो यानी आकाश-पाताल एक करने जैसी यह बात हो, तो भी संसार के कुछ महारथी यह अपूर्व सिद्धि प्राप्त करते हैं और इस सिद्धि में सुखी एवं सफल दाम्पत्य का रहस्य वे पाते हैं।
साधना का प्रथम सोपान जागृति है। मेरे हाथ में कौन-से पत्ते हैं, इसकी जानकारी और दूसरे के हाथ में कौन-से हैं इसके अनुमान से खेल चलता है। यही बात स्त्री-पुरुष के व्यवहार पर भी लागू होती है। पुरुष का आंतरिक तंत्र अलग और स्त्री का अलग, इसकी प्रतीति और स्वीकृति मंगल सप्तपदी का पहला कदम है।
स्त्री भावना-प्रधान है, जबकि पुरुष जड़ नहीं तो कुछ निस्पृह तो अवश्य है। दो सनातन पक्षों के बीच न्याय करने बैठें तो दिल ऐसा धडक़ने लगता है मानो सांप के बिल में हाथ डाला हो! परंतु आरंभ किए हुए साहस को चालू रखे बिना छुटकारा ही नहीं। फिर इस झगड़े में तटस्थ न्यायाधीश तो पृथ्वी के दरबार में भी नहीं मिलेगा।
पुरुष एक चोट और दो टुकड़े की फिलॉसफी को मानता है, जबकि स्त्री टेढ़े-मेढ़े दांव-पेंच पसंद करती है। पुरुष समग्र परिणाम को एक दृष्टि में ही देख लेता है, जबकि स्त्री ब्यौरों की उपासक है। पुरुष का ध्यान वस्तुओं और घटनाओं की ओर तो स्त्री का व्यक्तियों की ओर जाता है। स्त्री का मन अंर्तदृष्टि से और पुरुष का मन तर्कबद्ध दलील से काम करता है।
इस दाम्पत्य-कला का पाठ्यक्रम तनिक समझिए। रूठना, मन ही मन जलना, आंसू बहाना आरंभ कर देना आदि पर स्त्रियों का एकाधिकार भले न हो, किंतु उनकी यह विशेषता तो है ही। स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों की आंखें सूखी रहती है और उनके हृदय की धडक़न धीमी होती है।
आघात झेलने के यंत्र अलग, इसलिए प्रत्याघात भी विभिन्न प्रकार के होते हैं। कंकड़ पानी में पड़े तो छींटे उड़ेंगे, तेल में पड़े तो निस्पंद तल में बैठ जाएगा। एक ही बात पुरुष के कानों में पड़े तो उसकी भाव-समाधि न टूटेगी, परंतु स्त्री के कानों में पड़े तो छींटे जरूर पड़ेंगे।
झगड़ा होने पर पति बचाव करता है, ‘मैंने ऐसा क्या कहा था कि वह जल उठे? आज मेर मन नहीं; तुम अकेली चली जाना। और वह इतनी सी बात का बतंगड़ बनाकर बैठी है, और मुझे दुनिया के सामने सात पीढिय़ों का कुलांगार ठहरा दिया है। इसी का तो नाम नारी है, और क्या?’
पतिदेव को खबर नहीं कि उसे जो सीधी-सादी और स्पष्ट बात लगती है, वही स्त्री की भावनाशील स्वभाव में कुछ और ही उलटी-सीधी भनक पैदा कर जाती है।
शब्दों और वाक्यों का अर्थ बिठाने के लिए स्त्री के पास अलग व्याकरण होता है। कोई आधुनिक पाणिनि स्त्री और पुरुषों के लिए अलग-अलग व्याकरण लिख दें, और पति-पत्नी का अलग शब्दकोश भी बना दे, तो कहीं मेल बैठे। इसी बीच साधारण स्त्री के साथ बोलते हुए पुरुष को बात स्पष्ट करके बोलने की आदत छोडऩी चाहिए और स्पष्टता के साथ बोलने वाले पुरुष की बात सुननेवाली स्त्री को, स्पष्टता के धक्के को सह सके, ऐसा फाया मन के कान में डालकर सुनना चाहिए।
पुरुष का शारीरिक गठन और घर एवं बाहर उसका पालन पोषण, उसे बाहुवल की सीधी पद्धतियों पर मुख्य आधार रखनेवाला बना देता है। जहां छोटा रास्ता बनाना हो, वहां लंबा रास्ता काम नहीं आता। जहां एक शब्द से काम निकले, वहां दसे बोलने का कुछ अर्थ नहीं।
इसके विपरीत स्त्री का गठन नाजुक और पालन-पोषण घर में ही होता है। इसलिए यह बचपन से ही मानव-स्वभाव की पारखी और दूसरों का अप्रत्यक्ष उपयोग करके अपना हेतु सिद्ध करने में कुशल होती है।
सायंकाल बाहर भोजन करने का लालच देकर पत्नी पति को बरबस बाहर ले जाती है। घूमते-घूमते वह अकस्मात दूसरा मार्ग पकड़ती है; बीच में ही जौहरी की दुकान के सामने वह सहजभाव से खड़ी हो जाती है और वहां शोभित हो रहे (जिसे स्वयं दस दिन पहले देखा था, और उसे जैसे भी हो वैसे खरीदने का मन बना बैठी थी) मोती के हार की ओर निर्मल भाव से पति का ध्यान खींचती है।
पति ने नि:श्वास छोड़ते हुए जोर से कहा कि हार चाहिए था, तो पहले से क्यों नहीं कहा? स्त्री स्वभाव है, इसीलिए न? अगर इस घरेलू राजनीति के नियमों की जानकारी स्त्री-पुरुष को हो, तो स्त्री की टेढ़ी-मेढ़ी नीति में पुरुष को खटपट की गंध न आएगी और पुरुष के झटपट किए हुए फैसले में स्त्री को जड़ता नहीं दिखाई देगी।
लडक़े-लड़कियों के समूह के सामने से एक नई मोटर गुजरी तब समूह में से दो प्रश्न साफ-साफ सुनाई पड़े। एक लडक़े ने पूछा कि ये कौन-सा मॉडल है? लडक़ी ने पूछा, ‘अंदर कौन बैठे हैं?’ पुरुष का ‘क्या?’ जबकि स्त्री का ‘कौन?’ यह लाक्षणिक वृत्ति है।
स्त्री की बातचीत की विषय-सूची में व्यक्तियों के गुण-दोष जाने-पहचाने एवं उनके प्रसंग, बालक और पड़ोसी, कपड़े-श्रृंगार, घर और साज-सामान, विशेष रूप से आते हैं, जबकि पुरुषों की सूची में व्यवसाय और पैसा, राजनीति और योजनाएं, खेल-कूद और मनोरंजन आदि प्रमुख स्थान लेते हैं।
पत्नी यदि पति के व्यवसाय की थोड़ी परिभाषा सीखे और पति यदि अलग तरह की साडिय़ों में रस लेना सीखे, तो घर में मौन व्रत का समय कम हो जाएगा।
फिर पुरुष का मस्तिष्क तथ्यों से अनुमान की प्रक्रिया द्वारा परिणाम पर पहुंचकर, तर्क चलाकर, निर्णय पर आता है, जबकि स्त्री की बुद्धि बीच की मंजिल को लांघकर एकदम अंतिम परिणाम पर पहुंचती है।
कहा जाता है कि क्यूरी दम्पति की अद्भुत वैज्ञानिक शोधों में मैडम क्यूरी अंतर-प्रज्ञा से अनुमान लगाती और उनके पति प्रयोग करके, और समीकरण बिठाकर परिश्रमपूर्वक उसे सिद्ध करते! ऐसे सुमेत से जीवन का प्रयोगशाला में शोध-कार्य सफल होता है।
प्रश्न उठता है कि जिन्हें अभिन्न एकरूपता में बांधना था, उन स्त्री-पुरुषों को प्रकृति ने इतना अधिक भिन्न क्यों बनाया, केवल तपश्चर्या कराने के लिए ही न? नहीं; अपितु विश्व-नाटक में, खेल में, स्त्री-पुरुष को अलग-अलग भूमिका निभानी थी; खेल में कभी न रहे, इस हेतु से प्रकृति ने पहले से ही उन्हें अलग-अलग स्वभाव से विभूषित किया।
स्त्री का भाग माता का; उसकी कोमलता, धीरज, बाल-प्रेम, गृहभक्ति, सूक्ष्म ब्यौरों (विवरणों) का ध्यान और मन में ठाना हुआ करा लेने की कुशलता, इन सब गुणों के कारण बालक का लालन-पालन एवं संस्कार-सिंचन उसके पवित्र हाथों द्वारा अच्छी तरह से हो सकता है।
जबकि पुरुष की भूमिका पिता की है; सामथ्र्य और मेहनत, वस्तुलक्ष्मी विश्वदर्शन और सीधा हमला करने की वृत्ति आदि के कारण वह कुटुंब के रक्षण-पोषण एवं संचालन के लिए रचा गया है
सोना और सुगंध। बीज और खेत। सूर्य और चंद्र।
स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं - ऐसा कहना और उसके समर्थन में वशिष्ठ-अरुं धती से लेकर गांधी-कस्तूरबा तक के, आदर्श युगलों की सूची तैयार कर देना सरल है। परंतु वस्तु-जगत में स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एक-दूसरे के अनुकूल होना- और वह भी शिष्टाचार के निमित्त थोड़े घंटों के लिए नहीं, बल्कि प्रतिदिन के चौबीस घंटे और जीवन-भर कठिन है। दोनों के व्यक्तित्व की खरी कसौटी यही होती है। परंतु जहां कसौटी के हैं, वहां सिद्धि भी हैं!
दूसरे के लिए मिली प्रेरणा से, अनुकूल होने की साधना करते-करते, हमारा व्यक्तित्व बनता है और सर्वगुणों का विकास भी सिद्ध होता है। मनुष्य शुष्क इच्छाओं के जोर से आदर्श व्यक्तित्व प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करे, तो उसे कष्ट अधिक होगा और सफलता कम मिलेगी। लेकिन मन के इस मनोरथ को, यदि हृदय का सहकार और मिल जाय, तो मानो पाल में पवन भर गया।
लोहे के सीखचे को बाहुबल से मोडऩा मुश्किल है, परंतु भट्टी में सांगोपांग तपाने के बाद वह सरलता से मोड़ा जाता है। मनुष्य का स्वभाव भी मंद प्रयत्न से नहीं बदलता; परंतु विवाह-विधि के अग्निकुंड में तप्त होने के बाद उसे जैसा गढऩा हो वैसा गढ़ा जा सकता है।
भावना के स्पर्श से कर्तव्य क्रीड़ा, त्याग शौक और बलिदान परमानंद रूप बन जाता है। गांधी जी को आज्ञा होने पर पूज्य कस्तूरबा ने पहली बार मैला उठाने के लिए साफ ना कर दी थी और घर छोडऩे के लिए तैयार हो गई थी; परंतु आगे चलकर अपनी इच्छा से उन्होंने एक हरिजन बालिका को सगी माता के-से स्नेह से पाला-पोसा। इस दृष्टांत से मालूम होता है कि दुर्लभ आत्मविकास प्रेम से सुलभ हो जाता है।
स्वार्थ त्यागकर दूसरों के लिए जीन में व्यक्तित्व-निर्माण का सारा शास्त्र समाया हुआ है और उसका पहला पाठ, सहज ढंग से, कौटुम्बिक जीवन में सीखा जा सकता है। प्रेम में मनुष्य को अपने संकीर्ण वर्तुल में से बाहर लाने की शक्ति है। सच्चे प्रेम में उदारता है, नि:स्वार्थता है, बलिदान है। प्रेम से ही मनुष्य पहली बार दूसरों का विचार करने लगता है; अपनी सुविधा छोड़ता है, और अपने हृदय-सिंहासन पर से अपने-आपको उतारने के लिए तैयार हो जाता है।
पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए और दोनों बालकों के लिए जीते हैं। पिता कुटुम्ब का गुजारा चलाने के लिए पसीना बहाता है, माता सबको खिलाने के बाद खाती है। इस प्रकार स्वाभाविक ढंग से, विज्ञापन बिना, गर्व बिना, प्रेम के मूक आग्रह के वश होकर, वे अपना जीवन दूसरों के कल्याणार्थ अर्पण करना सीखते हैं और इस शुभ प्रक्रिया में प्रत्येक की मानवता (व्यक्तित्व) विशेष खिल उठती है।