-तेजिन्दर राजपाल - फुटपाथ पर सोएंगे तो मरने का रिस्क तो है।
-जगदीश त्यागी उर्फ जॉली - फुटपाथ गाड़ी चलाने के लिए भी नहीं होते।
सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी' में ये परस्पर संवाद नहीं हैं। मतलब तालियां बटोरने के लिए की गई डॉयलॉगबाजी नहीं है। अलग-अलग दृश्यों में फिल्मों के मुख्य किरदार इन वाक्यों को बोलते हैं। इस वाक्यों में ही 'जॉली एलएलबी' का मर्म है। एक और प्रसंग है, जब थका-हारा जॉली एक पुल के नीचे पेशाब करने के लिए खड़ा होता है तो एक बुजुर्ग अपने परिवार के साथ नमूदार होते हैं। वे कहते हैं साहब थोड़ा उधर चले जाएं, यह हमारे सोने की जगह है। फिल्म की कहानी इस दृश्य से एक टर्न लेती है। यह टर्न पर्दे पर स्पष्ट दिखता है और हॉल के अंदर मौजूद दर्शकों के बीच भी कुछ हिलता है। हां, अगर आप मर्सिडीज, बीएमडब्लू या ऐसी ही किसी महंगी कार की सवारी करते हैं तो यह दृश्य बेतुका लग सकता है। वास्तव में 'जॉली एलएलबी' 'ऑनेस्ट ब्लडी इंडियन' (साले ईमानदार भारतीय) की कहानी है। अगर आप के अंदर ईमानदारी नहीं बची है तो सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी' आप के लिए नहीं है। यह फिल्म मनोरंजक है। फिल्म में आए किरदारों की सच्चाई और बेईमानी हमारे समय के भारत को जस का तस रख देती है। मर्जी आप की ़ ़ ़ आप हंसे, रोएं या तिलमिलाएं।
हिंदी फिल्मों में मनोरंजन के नाम पर हास्य इस कदर हावी है कि हम व्यंग्य को व्यर्थ समझने लगे हैं। सुभाष कपूर ने किसी भी प्रसंग या दृश्य में सायास चुटीले संवाद नहीं भरे हैं। कुछ आम किरदार हैं, जो बोलते हैं तो सच छींट देते हैं। कई बार यह सच चुभता है। सच की किरचें सीने को छेदती है। गला रुंध जाता है। 'जॉली एलएलबी' गैरइरादतन ही समाज में मौजूद अमीर और गरीब की सोच-समझ और सपनों के फर्क की परतें खोल देती है। 'फुटपाथ पर क्यों आते हैं लोग?' जॉली के इस सवाल की गूंज पर्दे पर चल रहे कोर्टरूम ड्रामा से निकलकर झकझोरती है। हिंदी फिल्मों से सुन्न हो रही हमारी संवेदनाओं को यह फिल्म फिर से जगा देती है। सुभाष कपूर की तकनीकी दक्षता और फिल्म की भव्यता में कमी हो सकती है, लेकिन इस फिल्म की सादगी दमकती है।
'जॉली एलएलबी' में अरशद वारसी की टीशर्ट पर अंग्रेजी में लिखे वाक्य का शब्दार्थ है, 'शायद मैं दिन में न चमकूं, लेकिन रात में दमकता हूं'। जॉली का किरदार के लिय यह सटीक वाक्य है। मेरठ का मुफस्सिल वकील जगदीश त्यागी उर्फ जॉली बड़े नाम और रसूख के लिए दिल्ली आता है। तेजिन्दर राजपाल की तरह वह भी नाम-काम चाहता है। वह राजपाल के जीते एक मुकदमे के सिलसिले में जनहित याचिका दायर करता है। सीधे राजपाल से उसकी टक्कर होती है। इस टक्कर के बीच में जज त्रिपाठी भी हैं। निचली अदालत के तौर-तरीके और स्थिति को दर्शाती यह फिल्म अचानक दो व्यक्तियों की भिड़ंत से बढ़कर दो सोच की टकराहट में तब्दील हो जाती है। जज त्रिपाठी का जमीर जागता है। वह कहता भी है, 'कानून अंधा होता है। जज नहीं, उसे सब दिखता है।'
सुभाष कपूर ने सभी किरदारों के लिए समुचित कास्टिंग की है। बनी इमेज के मुताबिक अगर अरशद वारसी और बमन ईरानी किसी फिल्म में हों तो हमें उम्मीद रहती है कि हंसने के मौके मिलेंगे। 'जॉली एलएलबी' हंसाती है, लेकिन हंसी तक नहीं ठहरती। उससे आगे बढ़ जाती है। अरशद वारसी, बमन ईरानी और सौरभ शुक्ला ने अपने किरदारों को सही गति, भाव और ठहराव दिए हैं। तीनों किरदारों के परफारमेंस में परस्पर निर्भरता और सहयोग है। कोई भी बाजी मारने की फिक्र में परफारमेंस का छल नहीं करता। छोटे से दृश्य में आए राम गोपाल वर्मा (संजय मिश्रा) भी अभिनय और दृश्य की तीक्ष्णता की वजह से याद रह जाते हैं। फिल्म की नायिका संध्या (अमृता राव) से नाचने-गाने का काम भी लिया गया है, लेकिन वह जॉली को विवेक देती है। उसे झकझोरती है। हिंदी फिल्मों की आम नायिकाओं से अलग वह अपनी सीमित जरूरतों पर जोर देती है। वह कामकाजी भी है।
सुभाष कपूर ने 'जॉली एलएलबी' के जरिए हिंदी फिल्मों में खो चुकी व्यंग्य की धारा को फिर से जागृत किया है। लंबे समय के बाद कुंदन शाह और सई परांजपे की परंपरा में एक और निर्देशक उभरा है, जो राजकुमार हिरानी की तरह मनोरंजन के साथ कचोट भी देता है। धन्यवाद सुभाष कपूर।
-अजय ब्रह्मात्मज
अवधि -131 मिनट
**** चार स्टार