नई दिल्ली। आत्मा कहने के लिए एक भूतही फिल्म है लेकिन डराने के सारे फॉर्मूले पुराने हैं। मसलन, एक अकेली महिला और उसकी बेटी। बेटी का अपनी मां को छोड़कर अपने गुजर चुके पिता को प्रेम करना। स्मार्ट शहरी साइकॉलाजिस्ट और सुपर स्मार्ट इंस्पेक्टर जो कानून के लंबे हाथों के बावजूद भी इस आत्मा की गुत्थी नहीं सुलझा पाता। यही नहीं एक ज्योतिषी भी है जो सारी बुरी चीजों को दूर रहने की बात कहकर हरिद्वार चला जाता है और आता है एक मंत्र लेकर।
डराने के भी बेसिक टूल्स होते हैं यह फिल्म इस कथन की तस्दीक करती है। बिपाशा साइकॉलाजिस्ट की सलाह पर बेटी को लेकर मुंबई से दूर ताजी हवा खाने निकलती हैं। इस पिकनिक सीक्वेंस में भी डर के टूल्स पीछा नहीं छोड़ते। मसलन, काले कपड़े और सफेद मेकअप में एक बुढि़या माया वर्मा बनीं बिपाशा के सामने आती है और कहती है कि वो आ गया है, यहां भी आ गया है। कहानी मुंबई में अपनी पांच साल की बेटी के साथ रहने वाली माया वर्मा (बिपाशा) की है जिसका पति अभय (नवाजुद्दीन) मर चुका है, लेकिन वह अपनी बेटी से मिलने आता रहता है। बाप-बेटी के इतने प्यार और पत्नी से नफरत की कोई पुख्ता वजह नहीं बताई गई है।
बिपाशा हॉरर फिल्मों में काम करने में निपुण हो गई हैं। नवाजुद्दीन जैसा अच्छा अभिनेता खराब कहानी और औसत निर्देशन के चक्कर में फंसकर सामान्य लगने लगता है। बेटी के किरदार में डोएल धवन कुछ हद तक प्रभावी लगी हैं। शेष कलाकार सामान्य हैं। शिव सुब्रमण्यम के किरदार का कोई औचित्य नहीं हैं। जयदीप अहलावत जैसे प्रतिभाशाली अभिनेता से तो काम ही नहीं लिया गया है। शेरनाज पटेल भूत-प्रेत के मामलों की जानकार प्रतीत हुई हैं। फिल्म में गानों की आवश्यक्ता नहीं थी, फिर भी निर्देशक सुपर्ण वर्मा ने एक लोरी डाली है जो उतनी अखरती नहीं। फिल्म का निर्देशन खराब है और कंटीन्यूटी तक का भी ख्याल नहीं रखा गया है। मसलन, जब माया के पति की मौत हो चुकी है, तो उसने मोबाइल में उसका नंबर क्यों सेव कर रखा है।
निर्देशक- सुपर्ण वर्मा
अभिनय- बिपाशा बसु, नवाजुद्दीन सिद्दकी, जयदीप अहलावत और डोएल धवन
अवधि- 100 मिनट
* 1 स्टार
दुर्गेश सिंह