रतन, नई दिल्ली। शहर- बंबई, जगह- गिरगावं स्थित कोरोनेशन थियेटर। वक्त आज से सौ साल पहले का, यानी 3 मई 1913। देश में इसी दिन स्वदेश निर्मित हिंदी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' पहली बार रिलीज हुई थी। इस फिल्म को जब लोगों ने देखा, तो उन्हें लगा कि यह तो एक साल पहले आई फिल्म 'पुंडलिक' से कई गुना अच्छी है। 'पुंडलिक' के निर्माण में विदेशी लोगों का भी योगदान था, इसलिए इतिहासकारों ने उसे पहली कथा-फिल्म के रूप में दर्ज नहीं किया। यह सम्मान मिला दादा साहब फाल्के की फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' को।
चालीस मिनट की यह फिल्म भारतीय सिनेमा के लिए ऐतिहासिक हो गई। 1910 में विदेश से आई दो भागों वाली फिल्म 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' के दर्शकों में एक थे फाल्के।
इसी फिल्म ने उन्हें फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। फाल्के ने पहले सोचा कि क्यों न राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म बनाई जाए? क्योंकि तब की नाटक कंपनियां इस नाटक को ही अधिक मंचित करती थीं।
उन्होंने इस पर फिल्म बनाने के बारे में सोचना शुरू किया। वह एक फरवरी, 1912 को लंदन गए और दो माह बाद वापस लौट आए। साथ लाए एक कैमरा, फिल्मांकन से जुड़े कुछ सामान और कुछ समय का अनुभव। फिल्म की तैयारी दौरान नायिका उनके लिए गंभीर समस्या बन गई। 'राजा हरिश्चंद्र' में तारामती की विशेष भूमिका थी।
फाल्के की इच्छा थी कि नायिका की भूमिका कोई युवती ही करे। इसके लिए उन्होंने तमाम प्रयास किए, जो नाकाम रहे। विवश हो फाल्के कोठे वालियों के पास पहुंचे। उनसे हीरोइन बनने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने भी टका-सा जवाब दे दिया। तवायफों का कहना था, 'हम कैमरे के सामने बेशर्मी नहीं कर सकतीं!' इसी बीच उन्हें एक ईरानी के रेस्त्रां में एक रसोइया नजर आया। बातचीत के बाद रसोइया काम करने के लिए तैयार हो गया, लेकिन फाल्के की मुसीबत अभी खत्म नहीं हुई। दरअसल, जब शूटिंग का समय आया, तो निर्माता-निर्देशक फाल्के ने रसोइये से कहा, 'कल से शूटिंग करेंगे, तुम अपनी मूंछें साफ कराके आना।' यह सुनकर उसने जवाब दिया, 'मैं मूंछें कैसे साफ करा सकता हूं! मूंछें तो मर्द-मराठा की शान हैं!' उसकी बातें सुनकर फाल्के ने समझाया, 'भला मूंछ वाली तारामती कैसे हो सकती है? वह तो नारी है और नारी की मूंछ नहीं होती। शूटिंग खत्म होने के बाद मूंछ फिर रख लेना!' काफी समझाने के बाद रसोइया मूंछ साफ कराने के लिए तैयार हुआ। रसोइया, जो भारत की पहली फीचर फिल्म की पहली हीरोइन बना, उसका नाम था पी जी सालुंके। हरिश्चंद्र का रोल दत्तात्रेय दामोदर दाबके को दिया गया। फिल्म के अन्य कलाकार थे भालचंद्र फाल्के, साने, तेलांग, शिंदे और औंधकर आदि। कलाकारों के चयन के बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हुई मुंबई के दादर में। कुछ समय बाद परेशानी आई, तो वे नासिक जाने लगे।
रास्ते में एक जगह कलाकार ड्रेस पहनकर रिहर्सल कर रहे थे, तब एक स्थानीय व्यक्ति ने इसकी जानकारी गांववालों को दी। उन्हें लगा ये सब डकैत हैं। उन्होंने मारपीट शुरू कर दी, बाद में उन्हें फाल्के ने समझाया। फिर उनका काम शुरू हुआ। उसके बाद 'राजा हरिश्चंद्र' की शूटिंग पूरी हुई। फाल्के को अपनी फिल्म को लेकर शक था कि यह अभी अधूरी है। अपनी शंका मिटाने के लिए उन्होंने फिल्म का पहला शो 21 अप्रैल, 1913 को कुछ खास लोगों के लिए रखा, जो फिल्मों की अच्छी समझ रखते थे। बंबई के ओलंपिया सिनेमा में फिल्म को प्रेस और लोगों से मिली प्रशंसा के बाद फाल्के ने इसे आम लोगों के लिए 3 मई 1913 को रिलीज किया। फिल्म ने इतिहास रचा। तब तक कोई भी विदेशी फिल्म तीन से छह दिनों तक ही देखी जाती थी, लेकिन यह तेईस दिनों तक लगातार चली थी।